अमर प्रेम
प्रेम और विरह का स्वरुप
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प्रेम और विरह का स्वरुप
प्रेम ----एक दिव्य अनुभूति --------कोई प्रगट स्वरुप नही,
कोई आकार नही मगर फिर भी सर्व्यापक ।
प्रेम के बिना न संसार है न भगवान । प्रेम ही खुदा है और खुदा ही प्रेम है --------सत्य है।
प्रेम का सौन्दर्य क्या है ------विरह । प्रेम का अनोखा अद्भुत स्वरुप विरह(वियोग)है ।
बिना विरह के प्रेम अधूरा है और बिना प्रेम के विरह नही हो सकता ।
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे की गति नही ।
प्रेम के वृक्ष पर विकसित वो फल है विरह जिसका सौंदर्य
दिन-ब-दिन बढ़ता ही है । जो सुख मिलन में नही वो सुख विरह में है
जहाँ प्रेमास्पद हर क्षण नेत्रों के सामने रहता है और इससे बड़ा
सुख क्या हो सकता है । बस इसी विरह और प्रेम का सम्मिश्रण है ये
अमर प्रेम ।
अमर प्रेम
अर्चना और समीर की खुशहाल बगिया और उसके दो महकते फूल.................हर तरफ़ ज़िन्दगी में बहार ही बहार । दोनों खुशहाल जीवन जीते हुए । प्रेम का सागर चहुँ ओर ठाठें मार रहा हो जहाँ । समीर एक सौम्य नेकदिल इंसान,अपने व्यवसाय में व्यस्त,पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति पूर्णतया समर्पित और अर्चना एक पढ़ी लिखी,सुशील,सुंदर घर परिवार की जिम्मेदारियां निभाती हुई पति के कंधे से कन्धा मिलकर चलती हुई एक संपूर्ण नारी का प्रतिरूप। उन्हें देखकर लगता ही नही कि वक्त ने कोई लकीर छोडी हो उनकी ज़िन्दगी पर। वैवाहिक जीवन के २० साल बाद भी यूँ लगता है जैसे विवाह को कुछ वक्त ही गुजरा हो । दोनों ज़िन्दगी को भरपूर जीते हुए यूँ प्रतीत होते जैसे एक दूजे के लिए ही बने हों।
ओ मेरे प्रियतम
प्रेम मल्हार गाओ तुम
प्रेम रस में भीगूँ मैं
मेघ बन नभ पर छा जाओ
मयूर सा नृत्य करुँ मैं
वंशी में स्वर भरो तुम
और रस बन बहूँ में
वीणा के तार जगाओ तुम
सुरों को झंकृत करुँ मैं
शरतचंद्र से चंचल बनो तुम
चांदनी सी झर झर झरूँ मैं
तारागन के मध्य, प्रिये तुम
और नीलमणि सी, खिलूँ मैं
ऐसा अद्भुत प्रेम अर्चना और समीर का ।
हर नारी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब वो सिर्फ़ अपने लिए जीना चाहती है या सिर्फ़ अपने लिए जीती है। अब अर्चना की ज़िन्दगी भी अपना रूप बदलने लगी थी । परिवार को समर्पित अर्चना के पास, अब वक्त ही वक्त था। अब उसके बच्चे बड़े हो गए थे । अपनी अपनी पढाई में व्यस्त रहने लगे । पति व्यापार में व्यस्त और अर्चना..............उसके लिए अब वक्त पाँव पसारने लगा । दिन का एक -एक लम्हा एक -एक युग बनने लगा। उसे समझ नही आ रहा था कि क्या करे. ऐसे में उसकी सहेली ने उसकी सहायता की. उसे उसके पुराने शौक की याद दिलाई. हाँ.............जिस शौक को वो भूल चुकी थी । अब वो ही शौक उसके तन्हा लम्हों का साथी बनने लगा. अर्चना को बचपन से ही कवितायेँ लिखने का शौक था. मगर घर की जिम्मेदारियां निभाते-निभाते वो अपने शौक को भूल ही चुकी थी।
अब अर्चना की ज़िन्दगी कल्पना की उड़ान पर एक बार फिर रंग भरने लगी। उसने एक बार फिर कवितायेँ लिखना शुरू किया और पत्रिकाओं में छपवाने लगी। अब अर्चना का भी अपना एक मुकाम बनने लगा। लोग उसे जानने लगे और वो भी बेजोड़ कवितायेँ लिखने का प्रयास करने लगी। धीरे- धीरे उसके अनेक प्रशंसक बनने लगे.उसकी अपनी एक अलग पहचान बनने लगी । लोग उसे सराहते और वो भी औरों की कवितायेँ पढ़ती और उन्हें सराहती। ज़िन्दगी अपनी ही धुन में गुजरने लगी। अर्चना अपनी कल्पनाओं में रंग भरने लगी.
वक्त ने एक बार फिर करवट बदली। अर्चना के पास असंख्य ख़त आने लगे । लोग उसकी कविताओं की सराहना करने लगे। उन्ही में एक दिन उसे एक ख़त मिला जिसमें लिखा था :---------------
अर्चना जी,
आप कैसे इतना गहन लिख लेती हैं ? आपकी हर रचना में ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ छुपी होती हैं । आपके लेखन को नमन है। अर्चना जी आपकी हर कविता के साथ मेरी बनाई कोई न कोई फोटो छपती है या यूँ कहो मेरी बनाई हर फोटो के जज़्बात,उसकी गहनता को आप कैसे अपनी कविताओं में ढाल देती हैं।
जो मैं अपनी चित्रकला के माध्यम से कहना चाहता हूँ उसके भाव सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ही कैसे समझ लेती हैं । कौन सा रिश्ता है आपकी कविताओं और मेरी चित्रकला के बीच।
सादर आभार
अजय
इस ख़त का जवाब अर्चना ने कुछ यूँ दिया -------------
अजय जी,
सादर धन्यवाद................आपको मेरी लिखी कवितायेँ पसंद आती हैं। आपकी बनाई कलाकृति हर कोमल ह्रदय इंसान को ख़ुद -ब-ख़ुद कोई न कोई कविता गढ़ने को विवश कर दे.............इतनी जीवन्तता होती है आपकी कलाकृति में।
फिर भी इतना कहना चाहूंगी शायद हम दोनों की राशि एक है------------हो सकता है इसलिए समझ सकती हूँ आपकी गहन भावनाएं जो हर कृति में छुपी होती हैं।
सादर आभार
अर्चना
उस वक्त अर्चना ने न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर या यूँ कहो दिल्लगी करने के लिए इस प्रकार की बातें कह दीं । उस वक्त अर्चना ने सोचा भी न था कि हल्के से कही बात अजय के जीवन को एक नया मोड़ दे देगी। बस उसके बाद तो अर्चना और अजय के खतों का सिलसिला चल ही पड़ा । दोनों के बीच एक अनोखा दोस्ती का रिश्ता कायम हो गया। अजय जब तक अर्चना की कविता पढ़ न लेता या अर्चना जब तक अजय की चित्रकला पर कविता न गढ़ लेती दोनों में से एक दूसरे को चैन ही न पड़ता। अजय के लिए तो अर्चना जैसे भोर का नया उजाला बन कर आई थी। धीरे- धीरे रिश्ता आकार लेने लगा। सबसे अहम बात इस रिश्ते की कि अब तक दोनों कभी एक दूसरे से मिले भी न थे.....................एक दूजे को देखा भी न था। कितना सुखद अहसास था इस रिश्ते का।शायद कुछ इस तरह :---------
न तुमने मुझे देखा
न कभी हम मिले
फिर भी न जाने कैसे
दिल मिल गए
सिर्फ़ जज़्बात हमने
गढे थे पन्नों पर
और वो ही हमारी
दिल की आवाज़ बन गए
बिना देखे भी
बिना इज़हार किए भी
शायद प्यार होता है
प्यार का शायद
ये भी इक मुकाम होता है
मोहब्बत ऐसे भी की जाती है
या शायद ये ही
मोहब्बत होती है
कभी मीरा सी
कभी राधा सी
मोहब्बत हर
तरह से होती है
कभी कभी कुछ रिश्ते अनजाने में ही बन जाते हैं । पता नही ये रिश्ता था या प्रेम या सिर्फ़ अहसास...............मगर अनजाने ही ज़िन्दगी का एक नया मोड़ बन गया।
अजय ने एक बार अपनी तस्वीर भेजी और अर्चना से भी आग्रह किया मगर अर्चना ऐसा कुछ नही चाहती थी जिससे उसकी खुशहाल गृहस्थी में कोई ग्रहण लगता,इसलिए उसने मना कर दिया । अजय जब भी ख़त लिखता हर बार एक तस्वीर भेजने का अनुरोध करता और अर्चना हर बार उसका आग्रह ठुकरा देती । अजय जानना चाहता था कि उसकी कल्पना दिखने में कैसी लगती है........क्या बिल्कुल वैसी जैसा वो सोचता था या उससे भी अलग। मगर अर्चना अपनी किसी भी मर्यादा को लांघना नही चाहती थी।
अजय का भी एक हँसता खेलता खुशहाल परिवार था । उसकी पत्नी और दो बच्चे । पूर्ण रूप से संतुष्ट । मगर वो कहते हैं ना कहानीकार हो,कवि हो,लेखक हो या चित्रकार ---------एक अलग ही दुनिया में विचरण करने वाले प्राणी होते हैं। दुनिया की सोच से परे एक अलग ही दुनिया बसाई होती है जहाँ ये ख़ुद होते हैं और इनकी कल्पनाएं । कल्पनाएं भी ऐसी जो हकीकत से परे होती हैं मगर फिर भी उसी में विचरण करना इनका स्वभाव बन जाता है । शायद ऐसा ही ह्रदय अजय का भी था। उसके चित्रों में सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम बरसा करता था। शायद प्रेम का कोई रूप ना था जो उसने बयां ना किया हो प्रेम की तड़प,प्रेम की पराकाष्ठा इतनी गहन होती कि देखने वाला कुछ पलों तक सिर्फ़ उसी में विचरण करता रहता था । ठगा - सा वहीँ खड़ा रह जाता। ऐसा कोमल ह्रदय था अजय का और ऐसी थी उसकी कल्पनाएँ। अब उसे उसकी प्रेरणा भी मिल गई थी अर्चना के रूप में । अर्चना में वो अपनी कल्पना की नायिका को देखने लगा । एक अनदेखा रिश्ता कायम हो गया था अजय की तरफ़ से । अब अजय अपनी नायिका के ख्वाबों में विचरण करने लगा था। मिलने की उत्कंठा तीव्र होने लगी थी। मगर शहरों की दूरियां थी साथ ही समाज की बेडियाँ ।
दोनों ही एक दूसरे के प्रेरणास्पद बन गए । मगर अर्चना के लिए अजय सिर्फ़ एक अहसास था एक सुखद अहसास----------जो उसके जज्बातों को,उसकी भावनाओं की गहराइयों को समझता था और वो अपने इन्ही अहसासों के साथ जीना चाहती थी
नदी के दो किनारों से दोनों चल रहे थे मगर एक कसक साथ लिए । जैसे नदी के किनारे चाह कर भी नही मिल पाते मगर फिर भी मिलने की कसक हर पल दिल में पलती रहती है कुछ ऐसा ही हाल दोनों का था। अजय की तड़प मिलने की चाह बार- बार अर्चना को बेचैन कर जाती । वो बार- बार समझाती,हर बार कहती ये क्या कम है कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझते हैं,जो तुम कह नही पाते या जो मैं सुन नही पाती वो भी हम दोनों के दिल समझते हैं,हमसे ज्यादा हमारे दिल एक दूसरे को जानने लगे हैं,बिना कहे भी हर बात पहचानने लगे हैं,तो क्या वहाँ वाणी को मुखर करना जरूरी है ? हर चीज़ की एक मर्यादा होती है और जो मर्यादा में रहता है वहाँ दिखावे की जरूरत नही होती, अपनी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना कहाँ ठीक है-------क्या जीने के लिए इतना काफी नही । जब शब्दों से ज्यादा मौन बोलने लगे तब वाणी को विराम देना ही उचित है । कुछ अनकही बातें मौन कह जाता है और मौन की भाषा कभी शब्दों की मांग नही करती। मगर अजय वो तो अपनी कल्पना के साथ जीना चाहता था ------------तन से नही मन से, शरीर से नही आत्मिक प्रेम के साथ और उसी प्रेम की स्वीकारोक्ति अर्चना से भी चाहता था इसीलिए अजय हर बार अर्चना से पूछता ------------क्या वो उसे प्रेम करती है ? मगर अर्चना हर बार मना कर देती । अजय का उन्माद अर्चना को हकीकत लगने लगा था इसीलिए वो अजय को हर बार सच्चाई के धरातल पर ले आती । अपने और उसके जीवन का सच समझाती मगर अजय तो जैसे इन सबसे दूर अपनी कल्पनाओं के साथ ही जीने लगा था, बेशक शारीरिक प्रेम नही था मगर वो कहते हैं ना प्रेम के पंछी ये कब सोचते हैं ---------वो तो बस उड़ना जानते हैं । कुछ ऐसा ही हाल अजय का था । मगर अर्चना -------उसका तो आत्मिक प्रेम हो या शारीरिक या मानसिक जो कुछ था वो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने समीर के लिए था । वो तो कभी ख्वाब में भी ऐसा ख्याल दिल में लाना ही नही चाहती थी । मगर अजय के रूप में मिला दोस्त खोना भी नही चाहती थी । अजय का अर्चना के जीवन में एक अलग ही स्थान था मगर वो प्रेम नही था अर्चना का। वो शायद उससे भी ऊंचा कोई स्थान था अर्चना के जीवन में जहाँ उसने अजय को बिठाया था मगर अजय के लिए स्वीकारोक्ति जरूरी थी और ये अर्चना के लिए एक कठिन राह.........................और जब अर्चना बेहद बेचैन हो जाती और दिल के जज़्बात कह नहीं पाती तो पन्नों पर कविता के रूप में उतार देती जो छपने पर स्वंय ही पहुँच जाते अजय के पास कुछ इस तरह :
तुमने दर्द माँगा माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने दिल माँगा
मैं दे ना सकी
तुमने आंसू मांगे
मैं दे ना सकी
तुमने मुझे चाहा
मैं तुम्हें चाह ना सकी
दिल की बात कभी
होठों पर ला ना सकी
ना जाने किस मिटटी के बने हो तुम
जन्मों के इंतज़ार के लिए खड़े हो तुम
ये कैसी खामोशी है
ये कैसा नशा है
ये कैसा प्यार है
क्यूँ ज़हर ये पी रहे हो
क्यूँ मेरे इश्क में मर रहे हो
मैं इक ख्वाब हूँ, हकीकत नही
किसी की प्रेयसी हूँ, तेरी नही
फिर क्यूँ इस पागलपन में जी रहे हो
इतना दीवानावार प्यार कर रहे हो
अगले जनम में मिलन की आस में
क्यूँ मेरा इंतज़ार कर रहे हो
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